मध्यप्रदेश की राजधानी में इन दिनों एक खास “अतरिक्त प्रभार” चर्चा में है। मंत्रालय की पाँचवीं मंज़िल पर हाल ही में बैठाए गए एक बड़े साहब, जिनके जिम्मे जनप्रतिनिधियों से समन्वय की बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, फिलहाल समन्वय करने के बजाय अपने नए दफ्तर को ‘सुसज्जित’ करने में व्यस्त हैं। नई कालीन बिछ रही है, कुर्सी में अतिरिक्त गद्दी लग रही है, और हवादार माहौल की तलाश जारी है। इस रवैये से जनप्रतिनिधि त्रस्त हैं, पर साहब मस्त हैं।
लेकिन, दिक्कत यह है कि सरकार ने जिम्मेदारी तो बड़ी दी, मगर कमरा छोटा! अब साहब ऐसे में कैसे बैठें? बड़े पद के लिए बड़ा कमरा तो चाहिए ही, नहीं तो सरकारी कार्य कैसे सुचारू रूप से होंगे? शायद इसी कारण साहब अपने मूल दफ्तर की बजाय अतरिक्त प्रभार वाले कार्यालय में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं।
जनप्रतिनिधियों से समन्वय की ज़िम्मेदारी के लिए साहब को बैठना भी पड़ता, मिलना भी पड़ता, सुनना भी पड़ता—और शायद यही असली दिक्कत है! साहब का मानना है कि छोटा कमरा उनके बड़े व्यक्तित्व और जिम्मेदारी के साथ न्याय नहीं कर रहा। सूत्रों की मानें तो नाराज़गी इस कदर बढ़ रही है कि कहीं ऐसा न हो कि जल्द ही ‘बड़ा’ कमरा लेने के लिए कोई बड़ा कदम उठ जाए।
सरकार के पास फैसलों की लंबी फेहरिस्त है, लेकिन इन दिनों मंत्रालय में सबसे ज़रूरी सवाल यही है—क्या साहब को उनके लायक कमरा मिलेगा या नहीं? देखते हैं, “समन्वय” पहले होगा या “सजावट”!
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