पूजे गए नहीं, पढ़े जाने चाहिए: डॉ. अंबेडकर की चेतावनी

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“उन्होंने मूर्ति नहीं, क्रांति बनने की कोशिश की थी — लेकिन हमने उन्हें किताबों और कैलेंडरों में कैद कर दिया। क्या हम उनके विचारों के साथ न्याय कर पा रहे हैं?” 

हर साल 14 अप्रैल को देशभर में डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती पर कार्यक्रम आयोजित होते हैं। नीली पगड़ियाँ, जय-जयकार, फूलों से सजी मूर्तियाँ और सोशल मीडिया पर प्रेरणास्पद उद्धरणों की बाढ़। लेकिन क्या इतना भर काफी है? क्या हम सच में अंबेडकर को समझते हैं या सिर्फ उन्हें स्मारक बनाकर अपने सामाजिक कर्तव्यों से मुक्त हो जाते हैं?

“धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है, पर राजनीति में भक्ति निश्चित रूप से पतन और तानाशाही की ओर ले जाती है।”
– यह अंबेडकर की एक चेतावनी है, जो आज के लोकतंत्र में सवाल पूछने से परहेज़ करने वाली जनता के लिए आईना है।

डॉ. अंबेडकर सिर्फ संविधान निर्माता नहीं थे, वे एक विचार थे—एक चेतना, जिसे हमने धूल भरी पाठ्यपुस्तकों और सरकारी विज्ञप्तियों में कैद कर दिया है। वे चाहते थे कि जनता सोचने, पढ़ने और सवाल पूछने की क्षमता रखे। लेकिन हमने उन्हें केवल आरक्षण या दलित राजनीति के दायरे में समेट दिया।

एक विचारक की यात्रा

1891 में मध्यप्रदेश के महू में जन्मे अंबेडकर ने बचपन से ही सामाजिक भेदभाव झेला। स्कूल में पानी तक नहीं पीने दिया गया। फिर भी उन्होंने शिक्षा को हथियार बनाया। बॉम्बे से लेकर कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स तक की उनकी यात्रा केवल शैक्षणिक नहीं थी, वह उनके अंदर बसी समानता और न्याय की खोज थी।

भारत लौटने के बाद उन्होंने संघर्ष को चुना—1927 का महाड़ सत्याग्रह इसका उदाहरण है, जहाँ उन्होंने सार्वजनिक जल स्रोतों पर दलितों के अधिकार की लड़ाई लड़ी। मनुस्मृति को सार्वजनिक रूप से जलाना, उनके साहस और प्रतीकात्मक विरोध का परिचायक था।

राजनीतिक व्यवस्था से टकराव

डॉ. अंबेडकर ने जब दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग की, तो उन्हें गांधी और कांग्रेस से तीव्र विरोध झेलना पड़ा। पूना समझौता राजनीतिक सहमति नहीं, एक दबाव में लिया गया निर्णय था। बाद में जब उन्होंने हिंदू कोड बिल के ज़रिए महिलाओं को संपत्ति और विवाह में अधिकार दिलाने की कोशिश की, तो उसे रोक दिया गया—जिससे निराश होकर उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया।

“मैं एक हैक था। मुझसे जो काम कराया गया, वह हैक वर्क था।”
– यह उनके इस्तीफे का बयान था, जो आज भी भारतीय समाज की सामाजिक असफलताओं का गवाही देता है।

जाति का स्थायी संकट

डॉ. अंबेडकर ने Annihilation of Caste में लिखा—
“आप जाति की नींव पर कुछ नहीं बना सकते—न राष्ट्र, न नैतिकता।”

आज भी यह बात उतनी ही प्रासंगिक है। जाति आज भी जीवित है—विद्यालयों में दलित बच्चों को अलग बैठाया जाता है, मैला ढोने की प्रथा खत्म नहीं हुई, और महिलाओं के खिलाफ जातिगत हिंसा जारी है। आधुनिकता, योग्यता और विकास की बातें करते हुए समाज में असमानता को ‘मेरिट’ के नाम पर पुनः स्थापित किया जा रहा है।

अधूरी क्रांति का सूत्रधार

आज जब राजनीतिक दल अंबेडकर की तस्वीरें लगाते हैं, उनकी विरासत को अपनाने या खारिज करने की कोशिश करते हैं—तो सवाल यह उठता है: क्या वे अंबेडकर को पढ़ते हैं?
क्या उन्होंने The Buddha and His Dhamma, States and Minorities, या The Problem of the Rupee पढ़ा है?

उनका बौद्ध धर्म अपनाना केवल धर्मांतरण नहीं था, बल्कि सामाजिक न्याय की नई राह थी। यह उनका अंतिम विद्रोह था—ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ एक शांत लेकिन क्रांतिकारी प्रहार।

आज के संघर्षों में अंबेडकर जीवित हैं

जब कोई लड़की पितृसत्ता से सवाल करती है, कोई छात्र जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाता है, कोई किसान या मज़दूर अपने हक़ की लड़ाई लड़ता है—तो वहां अंबेडकर जीवित हो उठते हैं।

उनकी ये पंक्ति आज भी मार्गदर्शक है—
“छीने गए अधिकार दया की भीख से नहीं लौटते, वे केवल निरंतर संघर्ष से वापस लिए जाते हैं।”

श्रद्धांजलि नहीं, एक आव्हान

यह लेख एक श्रद्धांजलि नहीं, एक बुलावा है—अंबेडकर को फिर से पढ़ने, समझने और लागू करने का। मूर्तियों से निकलकर विचारों में लौटने का। सवाल पूछने, असहमत होने, और नए भारत को गढ़ने का।

नोट:- यह लेखक के विचार हैं।

 


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