काना-फूसी: रंग, गुजिया और बेलकम की राजनीति

Spread the love

भोपाल के हाउस में इस बार होली का रंग कुछ अलग ही था। गुलाल उड़ने से ज्यादा सवाल उड़ रहे थे, और पिचकारियों से रंग कम, नसीहतें ज्यादा निकल रही थीं। मुखिया ने रंगउत्सव का मंच सजाया था, लेकिन टीम के बड़े-बड़े दिग्गज नदारद थे। कुछ ने घर में ही गुजिया का स्टॉल खोल लिया, तो कुछ ने “घर की होली, सबसे न्यारी” वाला राग अलाप लिया।

अब चर्चा ये है कि समन्वयक की स्थिति नाजुक है। वैसे, मुखिया भी पहले ही संकेत दे चुके थे— “आओ तो बेलकम, बाकी सब भीड़ कम!” ये तो मानना पड़ेगा, राजनीति में वाक्य कम और संकेत ज्यादा मायने रखते हैं।

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर “बस” जा कहां रही है? बस की चाबी, स्टेयरिंग, गियर और ब्रेक सबकुछ मुखिया के पास ही है, और उन्होंने साफ कर दिया— “जो उतरना चाहे, उतर जाए, पर बस कहीं नहीं रुकेगी!” अब सवाल ये है कि जो पहले से खिड़की के पास खड़े हैं, वो उतरने की सोच रहे हैं या खिड़की से बाहर देखने की?

वैसे भोपाल की सियासी होली में हर रंग के अपने मायने हैं। कुछ लोग लाल-गुलाबी रंग में दिख रहे थे, तो कुछ पहले से ही सफेद झंडा लिए खड़े थे। और हां, होली के बाद अक्सर रंग उतर जाते हैं, मगर राजनीति में रंग चढ़ने के बाद उतरता नहीं, बस बदल जाता है।

खैर, अभी संभावनाएं अनंत हैं! आगे देखते हैं, कौन रंग बचाता है और कौन रंग बदलता है!

सभी को होली की शुभकामनाएं।

 

ये भी पढ़े: कान्हा-फूसी: साहब का “बड़ा” प्रभार और “छोटा” कमरा


Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *