राजधानी में सरकार की इमारत जितनी ऊंची है, उससे कहीं ऊंची उड़ानें यहां की अफवाहें भरती हैं। हालिया उड़ती-उड़ती खबर ये है कि सूबे के मुखिया ने जिस “महत्वपूर्ण” दस्तावेज़ पर धड़ाधड़ दस्तखत किए, उन्हें खुद ये अंदाज़ा नहीं था कि वो आखिर था क्या! मज़े की बात ये कि इस ड्राफ्ट के बारे में उन्हें कोई जानकारी दी ही नहीं गई।
असल में चौथी मंज़िल पर विराजमान एक बड़के साहब ने पुराने ड्राफ्ट की तरफ देखने की जहमत ही नहीं उठाई। वो तो मुख्य विभाग की किसी रैक में सालों से लाल-नीले कपड़े में लिपटा, धूल खा रहा था। इतना खामोश और छुपा हुआ कि खुद फाइल भी अब पहचानने से इनकार कर दे। न उसे ढूंढा गया, न खोला गया—क्योंकि साहब को नया फॉर्मूला बनाना था।
साहब ने बड़ी सादगी से कहा—”पुराना जमाना गया, ये नया मॉडल है सरकार चलाने का।” और बिना किसी समीक्षा समिति, विमर्श या विभागीय बैठक के नया ड्राफ्ट बन गया।
फिर क्या था, साहब सीधे पहुंचे मुखिया जी के पास।
मुखिया जी ने भी न दाएं देखा, न बाएं—बस दस्तखत किए और कैमरे के सामने मुस्कुरा दिए। उन्होंने सोचा, कुछ नया हो रहा है, अच्छा ही होगा! और इस तरह इतिहास में एक और पन्ना जुड़ गया—जो किसी ने ठीक से पढ़ा नहीं, लेकिन उस पर दस्तखत ज़रूर हो गए।
साहब मुस्कुराए। सोच रहे थे—“जो दिखे नहीं, वही सबसे अच्छा। और जो दिखा दिया, वो फाइनल!” अब उस ड्राफ्ट से क्या निकलेगा, ये तो वक्त बताएगा, लेकिन फिलहाल पूरी बिल्डिंग में चाय की चुस्कियों के साथ सबसे ज्यादा चर्चा इसी बात की है कि “मुखिया जी को पता था या नहीं?”
कुछ लोग कह रहे हैं—“पता था, पर उन्होंने अनदेखा किया।”
कुछ कह रहे हैं—“नहीं पता था, पर उन्होंने दिखावा किया।”
और कुछ तो बस ये कह रहे हैं—“हमें क्या, जब तक ट्रांसफर नहीं हो रहा, सब ठीक है।”
तो पढ़ते रहिए द न्यूज एनालिसिस, जहां खबरें उड़ती नहीं, फुसफुसाती हैं—कभी कॉरिडोर में, कभी साहब की चाय में, और कभी दस्तावेज़ों की धूल में।
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