भोपाल। किशोरावस्था वैसे भी शरीर और मन के कई बदलावों की उम्र होती है, लेकिन अगर कोई बच्चा ट्रांसजेंडर हो, यानी उसका जैविक लिंग और असली पहचान मेल न खाए, तो यह बदलाव एक सतत संघर्ष बन जाता है—खुद से, परिवार से, समाज से और उस व्यवस्था से जो सिर्फ दो ही लिंग पहचानती है।
किसी की पहचान, किसी का भ्रम क्यों?
भारत में ट्रांसजेंडर बच्चों को अपनी पहचान समझने में भी मुश्किल होती है। यौन शिक्षा का अभाव और समाज की संकीर्ण सोच उन्हें अकेलेपन में धकेल देती है। एक ट्रांसजेंडर किशोर जब महसूस करता है कि वह “कुछ अलग” है, तो उसे यह भी डर सताता है कि कोई उसे गलत न समझ ले। यही डर उसे अपने आप से भी छुपाता है।
समाज लिंग को सिर्फ दो हिस्सों में बाँटता है—पुरुष और महिला। किताबें, स्कूल, मीडिया—हर जगह यही संदेश दिया जाता है। लेकिन जो बच्चे इस ढांचे में फिट नहीं होते, उनके लिए पहचान की कोई जगह नहीं होती। ट्रांसजेंडर, नॉन-बाइनरी, गे, लेस्बियन जैसी पहचानें अब भी हाशिये पर हैं।
“मैं था… लेकिन कोई देखता नहीं था”
एक ट्रांसजेंडर किशोर स्कूल में ताने झेलता है, घर में अपमान और समाज में अदृश्यता। मानसिक रूप से यह तनाव इतना बढ़ जाता है कि कई बार चिंता, अवसाद और आत्महत्या की स्थिति बन जाती है। विशेषज्ञों का मानना है कि ट्रांसजेंडर बच्चों को सबसे पहले समाज से इज़्ज़त और अपनापन मिलना चाहिए।
“मैं थी, बस मैं थी”
भोपाल की एक ट्रांसजेंडर महिला, जिन्होंने अपना नाम न बताने की शर्त पर बात की, कहती हैं, “मेरे परिवार ने मेरी पहचान को कभी गंभीरता से नहीं लिया। मुझे कहा गया कि मैं मानसिक रोगी हूँ। आज भी, मेरे माता-पिता मुझे स्वीकार नहीं कर पाए हैं।”उनकी बातों में दर्द भी था और हिम्मत भी—जो हर रोज़ समाज से लड़ने से आती है।
गाँवों से उम्मीद!
ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता संजना सिंह का कहना है कि गाँवों में ट्रांसजेंडर लोगों को शहरों की तुलना में ज़्यादा सम्मान मिलता है। “समाज आज भी लिंग को सिर्फ शरीर के आधार पर देखता है। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, तब तक हम पीछे रहेंगे,” उन्होंने कहा।
घर ही पराया क्यों हो जाता है?
बहुत से ट्रांसजेंडर बच्चों को उनके परिवार ही अपनाने से इनकार कर देते हैं। कुछ को जबरन डॉक्टर के पास भेजा जाता है, तो कुछ को घर से निकाल दिया जाता है। इससे वे मानसिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर हो जाते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य की चुनौती
एम्स भोपाल के मनोचिकित्सक डॉ. रोशन सुतार बताते हैं,
“ट्रांसजेंडर समुदाय में सामाजिक कलंक, पहचान की अस्वीकृति और नशे की प्रवृत्ति आम है। मानसिक स्वास्थ्य सेवा और काउंसलिंग उनके लिए बेहद जरूरी है।”
उम्मीद की किरणें
- चिकित्सा सुविधा: एम्स भोपाल ने ट्रांसजेंडर लोगों के लिए विशेष चिकित्सा सुविधा शुरू की है।
- शिक्षा: स्कूलों में जेंडर पर आधारित शिक्षा शुरू होनी चाहिए, जिससे बचपन से ही समावेशी सोच विकसित हो।
- सरकारी योजनाएं:
- ओडिशा में “तृतीय प्रकृति सुरक्षा अभियान” के तहत छात्रवृत्ति, पुनर्वास और रोजगार मिल रहा है।
- आंध्र प्रदेश में “वाईएसआर पेंशन कणुका” योजना के तहत ₹3,000 प्रति माह पेंशन दी जा रही है।
- समुदाय और परिवार का सहयोग: परिवार और समुदाय का सहयोग ट्रांसजेंडर व्यक्ति को आत्मनिर्भर बना सकता है।
- मानसिक सहारा: LGBTQ+ नेटवर्क्स से जुड़ाव और प्रोफेशनल काउंसलिंग मानसिक स्वास्थ्य में सुधार ला सकती है।
—यह पहचान की नहीं, इंसानियत की लड़ाई है
ट्रांसजेंडर व्यक्ति भी वही चाहते हैं जो हर इंसान चाहता है—प्यार, सम्मान, अपनापन और बराबरी। यह समाज कब तक उन्हें ‘भ्रम’ कहकर टालता रहेगा? अब वक्त है सोच बदलने का। क्या हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जहाँ हर बच्चा अपनी सच्चाई कह सके, बिना डरे?
सवाल सीधा है—क्या हम तैयार हैं?
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