क्या हम एक दिन भी ट्रांसजेंडर बनकर जी सकते हैं?

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सोचिए, आप किसी कैफे में अपनी पसंदीदा कोल्ड कॉफी और पिज्ज़ा लेने जाते हैं। जैसे ही आप बैठते हैं, आसपास के लोग आपको घूरने लगते हैं। उनकी आँखों में अजीब-सी घृणा, संदेह, और असहजता होती है। कुछ फुसफुसाते हैं, कुछ हंसते हैं, कुछ आपको देख कर जानबूझकर मुंह फेर लेते हैं। आप सामान्य महसूस करने की कोशिश करते हैं, लेकिन हर एक नज़र आपको याद दिलाती है—”तुम अलग हो, तुम्हें यहाँ नहीं होना चाहिए!”

अब सोचिए कि ऐसा आपके साथ हर रोज़ हो। न केवल कैफे में, बल्कि हर जगह—बस में, दफ्तर में, मंदिर में, अस्पताल में, किराने की दुकान पर, यहाँ तक कि अपने ही घर में! क्या आप यह ज़िंदगी एक दिन भी जी सकते हैं? सोचिए, आप बस एक सामान्य इंसान की तरह जीना चाहते हैं, लेकिन हर कदम पर आपको यह अहसास कराया जाता है कि “आप सामान्य नहीं हैं। नाम न लिखने की शर्त पर एक ट्रांसजेंडर ने द न्यूज़ एनालिसिस को अपनी आपबीती साझा की।

ट्रांसजेंडर होना अपराध क्यों बना दिया गया?

हम ट्रांसजेंडर समुदाय के साथ रोज़ाना होने वाली घटनाओं को एनिमेटेड तस्वीरों के ज़रिए समझाने का प्रयास कर रहे हैं। इन तस्वीरों को देखें और उनके संघर्षों व पीड़ा को महसूस करने की कोशिश करें।

पहली तस्वीर हमें समाज की घोर विडंबना दिखाती है—जहाँ हम देवी के रूप में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की पूजा करते हैं, लेकिन असल जीवन में उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। सम्मान केवल रीति-रिवाजों में, वास्तविकता में अस्वीकार!

हमारा समाज धार्मिक रीति-रिवाजों में ट्रांसजेंडर समुदाय को सम्मान देने का दिखावा करता है, लेकिन जब वास्तविक जीवन में उनके अधिकारों की बात आती है, तो वही समाज उन्हें दरकिनार कर देता है। कुछ तस्वीरें इस दर्दनाक सच्चाई को उजागर करती हैं—जहां एक तरफ, लोग किन्नरों को पूजा के समय सम्मान देते हैं, तो दूसरी तरफ, वे ही लोग उन्हें अपने घर, समाज और कार्यस्थल से दूर कर देते हैं। यह दोहरे मापदंड का एक और उदाहरण है कि कैसे भारतीय समाज दिखावे में आधुनिक होने का दावा करता है, लेकिन जब वास्तविक स्वीकृति की बात आती है, तो हमें यह अस्वीकार्य लगता है। समाज के इस दोहरे चेहरे को देखकर सवाल उठता है—”अगर वे पूजनीय हैं, तो वास्तविक जीवन में उनके साथ दुर्व्यवहार क्यों?”

संपन्न समाजों से अधिक सम्मान गांवों में!

एक तस्वीर दर्शाती है कि कैसे गाँवों में रहने वाले लोग ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अधिक सहजता और सम्मान से अपनाते हैं, जबकि बड़े शहरों और संपन्न तबकों में रहने वाले लोग उन्हें अलग-थलग करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। यह एक कटु सत्य है कि शहरी समाज, जो खुद को प्रगतिशील कहता है, असल में सामाजिक समावेशिता में पिछड़ा हुआ है। असली विकास गगनचुंबी इमारतों से नहीं, बल्कि सभी को बराबरी का दर्जा देने से होता है। क्या यह अजीब नहीं कि बड़े शहरों में, जहाँ शिक्षा और प्रगति की बातें होती हैं, वहाँ ट्रांसजेंडरों को तिरस्कार झेलना पड़ता है?

 

शहरों में अधिक भेदभाव

क्या समाज में जगह है उनके लिए?

ट्रांसजेंडर समुदाय के कई लोग बचपन से ही अपनों द्वारा अस्वीकार किए जाते हैं। कुछ को उनके माता-पिता ही त्याग देते हैं, कुछ को समाज के तानों और शोषण का सामना करना पड़ता है। वे न तो सही शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं, न ही नौकरी के समान अवसर। समाज उन्हें एक अलग वर्ग में रखता है, जहाँ उन्हें एक आम इंसान की तरह जीवन जीने की इजाज़त नहीं होती। क्या यह समानता है? क्या यह न्याय है?

ट्रांसजेंडर होने का मतलब—हर दिन अपमान झेलना
तीसरी और चौथी तस्वीरें हमें यह अहसास दिलाती हैं कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति केवल अस्तित्व में आने के लिए भी संघर्ष करते हैं।

 

  • • अगर वे बस में चढ़ते हैं, तो लोग उनके पास बैठने से बचते हैं।
    • उन्हें स्कूलों में जगह नहीं मिलती।
    • अगर वे किसी दुकान से कुछ खरीदते हैं, तो दुकानदार उन्हें तिरस्कार से देखता है।
    • अगर वे नौकरी के लिए आवेदन करते हैं, तो उन्हें ‘योग्यता’ के बजाय उनके लिंग के आधार पर ठुकरा दिया जाता है।
    • अगर वे किराए पर घर लेना चाहते हैं, तो समाज उन्हें ‘अयोग्य’ नागरिक मानकर बाहर निकाल देता है।

क्या यह अन्याय नहीं?

जब हम किसी के आत्मसम्मान को कुचलते हैं, जब हम उन्हें जीने नहीं देते, जब हम उन्हें अकेलापन और दर्द देते हैं, तो यह सिर्फ एक व्यक्ति के साथ अन्याय नहीं है—यह इंसानियत के खिलाफ अपराध है। औऱ संवैधानिक मूल्यों की अनदेखी है।

ट्रांसजेंडर व्यक्ति हर रोज़ समाज के तानों, तिरस्कार और अपमान के बावजूद भी खुद को संभालते हैं। लेकिन क्या यह उनकी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए? क्या यह हमारी ज़िम्मेदारी नहीं कि हम उन्हें स्वीकार करें?

  • परिवार—जो सबसे सुरक्षित स्थान होना चाहिए, वही पहला युद्धक्षेत्र क्यों बन जाता है?
  • परिवार, जो हर इंसान के लिए सुरक्षा और अपनापन देता है, ट्रांसजेंडर लोगों के लिए अक्सर पहला संघर्ष बन जाता है।
  • कई ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को उनके माता-पिता और परिवार के लोग ही स्वीकार नहीं करते।
  • उन्हें अपनी पहचान दबाने के लिए मजबूर किया जाता है, ताकि वे “सामान्य” दिखें।
  • वर्षों तक अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने के बावजूद, वे अपने ही घर में अस्वीकृत रहते हैं।
  • मानसिक और भावनात्मक शोषण के कारण वे अवसाद और अकेलेपन से जूझते हैं।

अब समय है बदलाव का!

समाज में बदलाव लाने के लिए हमें ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रति अपने रवैये को बदलना होगा।

  • • उन्हें घूरना बंद करें – वे भी हमारी तरह इंसान हैं।
    • उन्हें अपने साथ बिठाएं, उनके साथ बातचीत करें – यह कोई अनोखी बात नहीं, बल्कि समानता की दिशा में पहला कदम है।
    • अगर वे भेदभाव का शिकार हों, तो उनके लिए आवाज उठाएं – अन्याय के खिलाफ खड़े हों।
    • कार्यस्थलों पर उन्हें समान अवसर दें – केवल पहचान के कारण किसी को नौकरी से वंचित करना गलत है।
    • उन्हें कानूनी रूप से समान अधिकार दिलाने के लिए लड़ें – समाज तभी आगे बढ़ेगा जब सभी को समान अवसर मिलेंगे।

समाज तब बदलेगा, जब हम बदलेंगे!

आज हम खुद को आधुनिक और समानता का समर्थक बताते हैं, लेकिन जब बात किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति को नौकरी देने, उनके साथ बैठने, या उनके साथ जीवन साझा करने की आती है, तो हम पीछे हट जाते हैं। यही समाज का सबसे बड़ा पाखंड है। जब तक यह रवैया नहीं बदलेगा, तब तक हम सही मायनों में “विकसित समाज” नहीं कहलाएंगे।

समाज की मानसिकता बदलने की जरूरत है। हमें यह समझना होगा कि ट्रांसजेंडर समुदाय सिर्फ एक ‘समूह’ नहीं, बल्कि हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा हैं। जब तक हम उन्हें बराबरी नहीं देंगे, तब तक हम खुद को आधुनिक या न्यायप्रिय समाज नहीं कह सकते। बदलाव की शुरुआत हमें खुद से करनी होगी। समाज का बदलाव भाषणों या कानूनों से नहीं होगा, बल्कि हमारे अपने व्यवहार से होगा।

क्या हम उन्हें एक इंसान की तरह स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? अगर नहीं, तो हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए—”क्या हम वास्तव में इंसान कहलाने लायक हैं?” “कहीं हमारे अंदर भी वह सोच तो नहीं, जो समाज को असंवेदनशील बनाती है?”

 

Can we live as transgender even for a day?


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